भगत सिंह को २३ मार्च १९३१ को लाहोर की सेंट्रल जेल मे फांसी लगाई गई थी, आज उस दिन को भारत शहीद दिन के तौर पे याद करते हे. भगत सिंह की बैरक की साफ-सफाई करने वाले कर्मचारि का नाम बोघा था। भगत सिंह उसको बेबे कहकर अक्सर बुलाया करते थे, बेबे का मतलब माँ होता हे। जब कोई भगत सिंह को पूछता बोघा तेरी बेबे कैसे हुआ? तब भगत सिंह सहजता से कहते, मेरा मल-मूत्र या तो मेरी माँ ने उठाया, या फिर बोघे ने। यह काम माँ के आलावा शायद ही कोई कर सकता हे, बोघे में मैं अपनी बेबे को देखता हूं।
भगत सिंह की यह बात सफाई कर्मचारी बोधा बी सुन रहा था, जिंदगी मे पहेली बार मिले सन्मान वाले शब्द सुनके बोधा की आंखे पानी से भर गई थी. यह देख भगत सिंह बोधे को गले से लगा लेते हे। भगत सिंह जी अक्सर बोघा से बतलाते, फांसी के फंदे को चूमने से पहले मे बेबे तेरे हाथों की रोटी खाना चाहता हूँ। पर बोघा जीजाक जाता था और कहता भगत सिंह तू ऊँची जात का सरदार, भगत तू रहने दे, ज़िद न कर लोग देखेंगे तो मुझे और तुजे भी भला भूरा कहेंगे। सरदार भगत सिंह जिद्दी मिजाज के माने जाते थे, फांसी से कुछ दिन पहले उन्होंने बोघे को कहा बेबे अब तो हम दो चार दिन के महेमान हे, अब तो हमारी इच्छा पूरी कर दे!
बॉधे ने रोते हुए खुद अपने हाथों से उस दिन शहिद भगत सिंह के लिए रोटिया बनाई, और अपने हाथों से ही खिलाई थी ऐसा माना जाता हे। भगत सिह के मुंह मे रोटी का निवाला खिला ते ही बोधा फुट फुट के रो दिया, बोधा कह पडा आज तुमने मेरा जन्म भी सफल कर दिया. ऐसे वीर को अपने हाथो से रोटी खिला ने का स्वभाग्य कहा सब को मिलता हे. कुछ दिनों बाद भगत सिंह ने आजाद भारत के स्वप्न फांसी के फंदे को चूमा.
भगत सिंह की उस वक्त की सोच भी कितनी आगे की रही होगी, न वो ऊंच नीच में मानते थे न छोटा बडे में, कम उम्र में इतनी समझदारी कहा से ै होगी!और आज आजादि के 74 साल बाद भी हमारे समाज में व्याप्त ऊँच-नीच के भेद-भाव की खबरे देखि जाती हे. भगत सिंह की यह कहानी से हमें सिख लेनी चाहिए।
शहीदे आजम भगत सिंह को और उनकी सोच को हमारा सलाम।