खुदीराम बोस भारत के ऐसे सपूत जिन्होंने केवल 18 साल की उम्र में हंसते हुए फांसी के फंदे को चूमा। रोंगटे खड़े करने वाली कहानी
आजकल के बच्चे 18 साल की उम्र में टीवी, पब्जी, मोबाइल, यूट्यूब, कार्टून से बाज नहीं आते वही 18 साल के खुदीराम बोस ने भारत की आजादि के लिए हंसते हुए फांसी के फंदे को अपने गले से लगा लिया था। आज सोच कर ही रूह कांप जाती है कि कैसे इतनी छोटी सी उम्र में भारत को आजादी दिलाने के लिए 18 साल का लड़का अंग्रेज शासन के सामने कुद पड़ा था। खुदीराम बोस मात्र 13 साल की उम्र में आजादी का सपना लिए क्रांतिकारियों की टोली के साथ जुड़ गए थे और मात्रा 18 साल होते होते तो उन्होंने शहादत हासिल कि थी। आइए जानते हैं रोंगटे खड़े खड़े करने वाली खुदीराम बोस की छोटी सी मगर क्रांति से भरी जिंदगी के बारे में।
खुदीराम बोस का जन्म 11 अगस्त 1889 को महोबानी मे हुए था जो बंगाल मे पड़ता हे। खुदीराम बोस उनके माता-पिता की इकलौती संतान थे उनके अलावा उनकी 3 बहने थी। केवल 6 वर्ष की आयु में खुदीराम ने अपने मां-बाप को को दिया। खुदीराम बोस को उनकी बड़ी बहन अपने साथ ले गई और उनका दाखिला स्कूल में करवाया। चोटी सी उमर मे ही वह क्रांतिकारियों के भाषण सुन ने जाना हो या छोटे मोटे मूवमेंट का हिस्सा बन न हो वह अपने से हो रहे हर यथार्थ प्रयत्न करने लगे। मात्र 15 साल की उम्र में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ पर्चे बांटते हुए पकड़े गए। उनको 15 कोणों की सजा सुनाई गई वह हस्ते हस्ते अपने पीठ पे खाते रहे। उनकी छोटी सी उम्र में या बहादुरी के कारनामे धीरे क्रांतिकारियों तक पहुंच गए और वह क्रांतिकारी मूवमेंट मे शामिल हो गए।
16 साल की उम्र मे एक रात में अंग्रेज अफसरों की ऑफिस के नजदीक बम लगाए जिसकी वजह से वह अंग्रेजों के वांटेड लिस्ट में आ गए। खुदीराम का मकसद था की किंग्सफोर्ड एक अंग्रेज अफसर जो अपनी क्रूरता के लिए जाना जाता था उसे मार गिराय। पहला प्रयत्न कोलकाता मे किया गया, जो असफल रहा किंग्सफोर्ड मे खुदीराम का डर बैठ गया उन्होंने तुरंत ही ट्रांसफर ले के मुज्जफरपुर चले गए। मुजफ्फरपुर मे वह डिस्ट्रिक्ट जज था। खुदिराम के पास बात पोहची की वह जज के तौर पर भारतीयों के साथ अन्याय कर रहे हैं उन्होंने तुरंत ही यह बात अपने साथी प्रफुल्ला चाकी को बताई। और दोनों ने तय किया कि वह दोनों मुजफ्फरपुर में जाकर किंगफोर्ड के अन्याय को हमेश के लिए खत्म कर देंगे।
वह जज के घर के बाहर बॉम और बंदूक ले लैस बैठे हुए थे। छोटी उम्र होने की वजह से किसी ने अब शक नही किया, जैसे ही बग्गी वहा से निकली उन्हो ने उसपे बम और गोलियां चलाई। प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम दोनो अलग अलग दिशा मे निकल गए। प्रफुल चाकी ने अपने आप को पुलिस से गिरा हुए पाकर खुद को ही गोली मर दी और शहादत हासिल की। वही खुदीराम को 30 km दूर रेलवे स्टेशन पर पकड़ लिया गया। पकड़े जाने के बाद उनको पता चला की किंगफोर्ड अभी जिंदा हे अंग्रेज अफसर के परिवार के दो लोग मारे गए हे।
खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई गए। पत्रकार जिन्होंने उनको देखा था उनका कहना था की खुदीराम कोर्ट रूम में मुस्कान लिए खड़े थे। जेल के अंदर उनके साथ रहे लोग भी बताते थे कि एक छोटा सा बच्चा जो दो दिन बाद फांसी पर चढ़ने वाला था, वह हमें चुटकुले सुना रहा था। उसको मरने का कोई गम नहीं था जैसे कि उसने अपनी जिंदगी में सब कुछ पा लिया। जब उसको फांसी की बात याद दिला रहे थे तो वह कहता था कि अगर मुझे गुलाम भारत में सौ बार जन्म लेना पड़ा तो मैं उसकी आजादी के लिए हंसते चेहरे फांसी के फंदे पर सो बार चढ़ जाऊंगा।
आज की युवा पीढ़ी को खुदीराम जैसे शहीद शख्सियतों से सीखना चाहिए कि यह आजादी हमें मुफ्त में नहीं मिली। इसके लिए हजारों लोग हंसते हुए फांसी के फंदे पर झूले थे। खुदीराम अपनी आंखों में आजादी की चमक के साथ फांसी के फंदे को चुंबन करके अपने गले से लगा लिया। और इसी के साथ खुदीराम भारत के सबसे कम उम्र के शहीदों में से एक हो गए। खुदीराम की बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का मकसद के साथ हम यह पोस्ट आपके साथ साझा कर रहे हैं।