भारतीय इतिहास योद्याओ की वीरता से भरा हुआ हे. ऐसे कही योध्या, क्रांतिकारि हुए जिन्होने देश के लिए अपनी जान दे दी। ऐसे ही एक क्रांतिकारी ‘टंट्या भील’ भी थे जिनके बारे मे काफी कम लिखा गया मगर उनकी वीरता से अंग्रेज भी डरा करते थे.
टंट्या भील का जन्म 1840 मे अरावली की पहाडियो मे मध्य प्रदेश के खंडवा में हुआ था। टंट्या भील का असली नाम ‘तंद्रा भील’ था। 1957 के युद्ध से प्रभावित होक उन्होंने सक्रीय तौर पे भारत की आजादी के लिए लड़ना शरू किया. देश के स्वतंत्रता नेता और आदिवासी नायक टंट्या की वीरता और अदम्य साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें गुरिल्ला युद्ध का विशेषज्ञ बताया था.
वह ‘भील जनजाति’ के युवायो को इकठा कर के अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने के लिए सेना बनाई थी. इन्होने अंग्रेजों को लूटा और उनके कही इरादे नाकाम किये साथ ही लुटे हुए पैसे गरीबो मे बाट दिया करते थे। टंट्या ने अंग्रेजों की गरीबों पर शोषण की नीति के खिलाफ आवाज उठाई, लोगो को एक किया जिससे वह एक लीडर के तौर पे पहचान बनाई। कही लोग उन्हें मसीहा कहते थे. आज भी वह मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ गुजरात के कही इलाको मे उनको आज भी आदर सन्मान की नजर से देखा जाता हे.
अंग्रेज उनसे इतना डरते थे की उनको इंडियन रोबिन हुड का नाम दिया गया था. टंट्या भील न केवल अपनी बहादुरी के लिए बल्कि सामाजिक कार्यों में सक्रिय भागीदारी के लिए भी जाने जाते थे। अपने विद्रोही स्वाभाव और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की भावना से तात्या भील ने कम समय में ही बड़ी पहचान हासिल कर ली। 1857 से 1889 तक टंट्या भील ने अंग्रेजों को सुदूर जंगल पहाडो से दूर रखा। अपनी ‘गुरिल्ला युद्ध नीति’ के तहत अंग्रेजों पर हमला कर भारत के वीर क्रांतिकारियो मे अपना नाम दर्ज किया.
1888-89 मे अंग्रेजो ने उन्हें पकड लिया। उन्हें भारी जंजीरों से जकड़ कर जबलपुर जेल में रखा गया उनपर हर तरीके के अमानवीय प्रताडित किया गया मगर टंट्या जूक नही। जबलपुर मे उन्हें 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई। फांसी के बाद ब्रिटिश सरकार भील विद्रोह से डरी हुई थी। माना जाता है कि उसे फांसी के बाद इंदौर के पास खंडवा रेल मार्ग पर पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास उनका पार्थिव शरीर छोड अंग्रेज भाग निकले थे. आज उस जगह को तांत्या मामा की समाधि माना जाता है। आज भी सभी ट्रेन चालक तांत्या मामा के सम्मान में ट्रेन को इस स्टेशन पर रोक देते हे.