जो कभी इस कंपनी में लेबर का काम करके ₹15 रुपये प्रति दिन कमाते थे, महेनत करके उन्होंने एक कम्पनी शरू की जो कुछ ही दिनों में 1600 करोड़ रुपए की कंपनी बन गई थी। कैसे अपनी दिन रात की महेनत से उन्होंने इस इंपॉसिबल काम को पॉसिबल किया।
1972 में दुर्गापुर नाम के एक छोटे से शहर में सुदीप का जन्म हुआ था. उनके पिता जी आर्मी में थे वॉर में गोली लग जाने से उनके पिताजी को पैरालाइज हो गए। रोजगार के लिए तब उनका पूरा परिवार का उनके बड़े भाई के ऊपर डिपेंड हो गया था। लेकिन उनकी भी तबीयत बिगड़ने लगी और आर्थिक स्थिति सही नहीं होने की वजह से उनके बड़े भाई की मृत्यु बिना इलाज के ही हो गई। बड़े बेटे की डेथ हो जाने की वजह से उनके पिताजी उस सदमे मे कुछ दिन बाद ही गुजर जाते हैं। जिस वजह से सिर्फ 17 साल की उम्र के सुधीर दत्ता के ऊपर चार भाई बहन और मां की जिम्मेदारी आ गई। इस समय हर रोज जिंदगी से जंग लड़ के उनके परिवार को आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पढ़ रहा था।
सुधीर जी के पास दो ही ऑप्शन थे पढ़ाई छोड़ कर किसी होटल में वेटर का काम करना या रिक्शा चलाना। लेकिन उन्होंने तीसरे ऑप्शन, अपने दोस्तों की बात मानकर और अमिताभ बच्चन की कहानी से इंस्पायर होकर मुंबई की टिकट खरीद के वह आँखों मे अमीर बन ने के सपने लिए मुंबई के लिए निकल जाते हैं।1988 में मुंबई पहुंचने के बाद ₹15 पर डे के हिसाब से वह एक लेबर का काम करना शुरू करते हैं। उनका काम था पैकेजिंग, लोडिंग एंड डिलीवरी करना। उन्होंने धीरे-धीरे काम के प्रोसेसिंग को नजदीकी से देखना और समझना शुरू किया।
20 लोगों के बीच में एक कमरे में उनको सोना पड़ता था सोने के बाद हिलने तक की भी जगह नहीं बचती थी ऐसे ही मुश्किलों से दिन गुजरते रहेते हे। मगर वह मुंबई में मजदूरी करने नहीं कुछ बडा करने के लिए आये थे. 1991 में उनके बॉस को एक बड़ा सा नुकसान हुआ और उनके बॉस को कंपनी बंद करनी पड़ी। सुदीप दत्ता की नौकरी चली जाती हे, अब वह नौकरि नहीं अपना खुद का धंधा शरू करने की सोच रहे थे। उन्होंने अपनी सेविंग को जमा किया अपने दोस्तों से पैसे उधार लिए और ₹16000 इकट्ठा किए और अपने मालिक के पास जाकर कंपनी खरीदने की बात की लेकिन कंपनी खरीदना कोई आसान काम नहीं था।
सिर्फ 16000 में फैक्ट्री खरीदना है। यह एक मजाक की बात लग रही होगी लेकिन वह मालिक भी क्या करता है उसके पास खोने के लिए और कुछ तो था नहीं 16000 में उसने वह डील डन कर दी। लेकिन एक शर्त रखी कि 2 साल तक जितना भी मुनाफा होगा वह उस मालिक को देना होगा। उस वक्त अलुमिनियम पैकिंग इंडस्ट्री बहुत ही मुश्किल हालातों से गुजर रही थी। उस वक्त सिर्फ दो ही कंपनी एक जिंदल लिमिटेड और एक इंडिया फॉयल पावरफुल कम्पनी मणि जाती थी.
उस वक्त कंपटीशन बी बहुत चल रहा था। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और खुद आगे जाकर बड़ी-बड़ी कंपनियों को अपनी कंपनी के पैकेजिंग के नमूने दिखाने शुरू किए। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाई और सन फार्मा जेसी कंपनियों ने उनको अपना काम देना शुरू किया ।उसके बाद उनको पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन फिर से एक बड़ी चुनौती वेदांता कंपनी के नाम से सामने आई वेदांता उस वक्त की बहुत बड़ी कंपनी थी लेकिन सुदीप जी ने हार नहीं मानी और वेदांता को भी उनके सामने झुकना पड़ा और 130 करोड़ कि डिल के साथ 2008 में वेदांता ने सुदीप जी से हाथ मिला लिया। 1998 से 2000 तक फार्मा पैकेजिंग इंडस्ट्री में सुदीप जी ने बहुत मेहनत की और आज उनकी कंपनी भारत की सर्वोच्च पैकेजिंग कंपनी बन गई।
सुदीप की महेनत रंग लायी और कम्पनी कुछ ही समय में १६०० करोड़ रुपये के साम्राज्य की मालिक बन गई। एस् डी एल्युमिनियम लिमिटेड, कुछ वक्त बाद दिवालिया भी हो गई थी। मजदूरी से एक छोटी सी कम्पनी तक और फिर कुछ ही समय ने १६०० करोड़ के मालिक सुदीप की जिंदगी रोमांच से भरी हुई रही, महेनत और बडे विज़न के वजह से ही वह इतनी बड़ी कम्पनी के मालिक बन पाए.